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Govind Narayan Sharma

Romance

4  

Govind Narayan Sharma

Romance

उत्प्रेक्षा

उत्प्रेक्षा

1 min
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तेरे अक्ष से निकले हर अश्क को हलक में उतार लिया,

ज्यो समुद्र मन्थन से निकले गरल को शम्भू ने पी लिया !


खुली अल्को से टपकती बुन्दे बारिश सी लगती हैं, 

तेरे लरजते होठो से निकले लब्ज़ शायरी लगती हैं !


तेरी पायल की छन छन मानो बारिश की रागिनी हो,

कंचन सी बलखाती तेरी देह मानो तड़ित सी तरंग हो !


तेरे गोरे रुखसार पर ये काला तिल दिठौना लगता हैं, 

ये चाँद से मुखड़े पर सालिगराम का बिछोना लगता हैं ! 


तेरे लबों की मुस्कान भोर में खिली कलियों सी लगती हैं, 

तेरे फेनिल चमकते रदन मानो सीप में मोती लगते है !


तू स्वाति नक्षत्र की बदली सी पीयूष बून्द हो ,

प्यासे पपीहे की तुम प्राणेश्वरी जीवन धन हो !


खुली बहकी जुल्फ़ों को यूँ न बिखेर चहरे पर, 

चाँद से मुखड़े पर श्याम घटाओ का साया लगती हैं !


कमर पर लहराती बेणी काली नागिन लगती है, 

तेरी कलाई कमलिनी नाल सी नाजुक लगती हैं ! 


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