मेरे ईश्क की दास्ताँ
मेरे ईश्क की दास्ताँ
सुनो दोस्तों ! दिल थाम कर,
ना देना तसल्ली, ना आंसू बहाना ,
यह पंगा लिया था मैंने जानकर ।
मेरा इश्क पहला था, मासूम था,
कोरा था ,कंवारा था ।
लोगों ने मुझे खींचा था ,पुकारा था,
कुछ ने लौटाने को पत्थर भी मारा था ः
पर भूत मुझ पर सवार था इश्क का,
मुझ पर चढ़ा खुमार था ।
वह महबूबा बड़ी ढीठ और चालक थी,
रात भर साथ रहती,
फिर भी सुबह आ धमकती।
मेरे इश्क के चर्चे, अब तो आम हो गए थे,
इस इश्क के चक्कर में,
हम खामखा बदनाम हो गए थे ।
माँ तो अपनी थी, संभाल लेती पर,
बापू से अक्सर गालियां ही मिलती ।
फिर भी उसका नशा ऐसा होता था,
कि हर सितम गवारा था ।
घर में, बाहर, सुबह- शाम, दिन- रात ,
हर पल वो मेरे साथ रहने लगी थी ।
पर हद तो तब हुई, जब वह 1 दिन ,
सरेआम कक्षा में आ पहुंची ।
मास्टर साहब गुणा भाग में उलझे थे,
और मैं उस कमसिन के पहलू में खो गया ।
उसकी रेशमी जुल्फों की खुशबू,
मुझे ख्वाबों की दुनिया में घुमाने लगी,
पर अगले ही पल, मास्टर साहब का डंडा ,
मेरे और मेरे इश्क के बीच आ गया ।
" ऐ कल्लू ! तू कक्षा में बैठे-बैठे कैसे सो गया ?
चल मुर्गा बन और बाग लगा ।"
यह सुनते ही प्रेमिका जी आंखों के रस्ते भागी,
हाथों में जब गूंजे डंडे, सोई अखियां जागी ।
सोच रहे होंगे अब आप ,
कौन थी प्रेमिका मेरी, क्या था उसका नाम ?
जिसके इश्क में में हुआ बदनाम,
निंदिया रानी था उनका नाम ।
उसके इश्क में पागल था सुबह शाम,
पर जब से मास्टर जी ने डंडा मारा ,
उतरा निंदिया का खुमार
हमने उससे नाता तोड़ा
पहले ईश्क का से दामन छूटा ।