मध्यस्थ मैं, तटस्थ मेरी कविता!
मध्यस्थ मैं, तटस्थ मेरी कविता!
सुनो ना, आ जाओ ना...!
पुकारता हूँ, निःस्वार्थ,
आओ और बन जाओ मध्यस्थ,
मेरे इन बिखरे ख्यालातों और,
मेरी उस अनगढ़ी कविता के मध्य,
बन जाओ मध्यस्थ,
मेरे कुछ कहे,
कुछ अनकहे शब्दों के मध्य,
बन जाओ मध्यस्थ,
मेरी भाषा के सौंदर्य और
रस के श्रृंगार के मध्य,
बन जाओ मध्यस्थ,
मेरे सूखे फटे होंठों,
और रस से संचरित सरगम के मध्य,
ताकि तटस्थ सी हो रही मेरी अभिव्यक्ति,
सजीव हो बन जाए एक अनमोल कृति,
सुनो ना, अब तो आ जाओ ना.....!