मैं वाक़िफ़ हूँ !
मैं वाक़िफ़ हूँ !
दर-ब-दर ठोकर खाती
फिर रही हूँ मैं
तभी तो दर-ब-दर खुद को
खोजती फिर रही हूँ मैं
कौन यूँ खुद में जज़्ब कर
ले गया है मुझे
कोई जा कर बताये उसे
खुद उसमे खोना चाहती हूँ मैं
इश्क़ के इस रास्ते की ऊँच
नीच से
अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ मैं
फिर भी ठोकर क़दम क़दम पर
अब खा रही हूँ मैं
ठोकर अगर किसी पत्थर से
से ही खाई हूँ मैं
तो मेरा जख़्मी होना भी
लाज़मी समझती हूँ मैं !