मैं, पा लूँ खुद को
मैं, पा लूँ खुद को


सोचती हूँ मैं, हर सुबह,
कि शायद ! आज
ढूँढ लाऊँगी, खुद को,
निकल पड़ती हूँ ढूँढने
हर उस जगह, जहाँ
खोया था मैंने खुद को
जैसे,
मंदिर के पिछवाड़े में
दीवार से सटे उन चंद
पलों में जो पूजा-अर्चना
के बहाने चुराए थे,
कभी छत के उन लम्हों में
जब कपड़े सूखाने के बहाने
आती थी और दूर से ही
तुम्हारी एक झलक पाकर,
मुझे तपती धूप में भी
शीतलता मिल जाया
करती थी,
उस मुंडेर पर, जहाँ
दिन ढलते ही, बैठकर
मैं, टकटकी
बाँधे तुम्हारे आने की
बाट जोहती थी,
उस वृक्ष के तले,
जिसके
नीचे घंटो बैठ-बैठ
कर हमने अपने
सारे अच्छे-बुरे सपने
सजाए थे व ढेरों वादे
किए थे,
उस सरोवर के किनारे पर
जहाँ
हमारे प्रेम की तरह
वक्त की निर्मल धारा
बहती थी,
उन बारिशों में, जिसकी
बूंँदों में ख़ुशियों का वो राग
था, जिससे मेरा तन-मन
भीग कर प्रेम रस से
ओत-प्रोत हो जाता था,
उस पतझड़ में, जो मेरे
जीवन में ऐसा
आया के अब तक मैनें
बहारों का मुँह नहीं देखा,
हर एक जगह ही, ढूँढा मैनें
खुद को, यहाँ तक कि,
खुद में खुद को कई बार
ढूँढा, पर नहीं ढूँढ़ पाई
क्योंकि, मुझ में मैं हूँ ही
नहीं, बस तुम ही तुम हो,
हर जगह-हर तरफ बस
तुम ही तो हो,
रोज़ ही ढल जाता है दिन
यही सोच कर के कहीं
मैं, इंतजार की गोद
में ही, सदा के लिए न
सुला लूँ खुद को
इसलिए, लौट आओ
तुम
वक्त रहते के
मैं,पा लूँ खुद को।