मैं मजदूर हूँ
मैं मजदूर हूँ
कहता है मजदूर मै भी एक इंसान हूँ,
दीन हीन ठहरा पर मै श्रमिक की खान हूँ!
धरती का नहीं कोई ऐसा कोना,
ना बहा हो जहाँ मेरा पसीना !
अपने रक्तसंचित हाथों से मैंने खेत लहलहाऐं है,
इसी का परिणाम है कितने पेट भर पाये है !
ताजमहल से लाल किले तक सब हमने बनाऐ हैं,
अमीरों के शौकों में चार चांद लगाऐ है !
उच्च-उच्च महलों पर हमारे ही पदचाप है,
उनके एक-एक ईंट पर बस हमारी छाप है !
बालू, सिमेंट, रेत को आकार दिया,
पुल, रेल, सड़क रातोंरात खड़ा किया !
16 वीं से 21 वीं शताब्दी तक हमने इतिहास बनाया है,
मानव जाति की सौगातें अपने स्पर्श से चमकाया है !
कभी ना उतार सकोगे किमत तुम हमारे बलिदान कि,
खुद झोपड़ी में रहकर कमी ना आने दी तुम्हारे शान की !
कभी नहीं मिला हमें हमारा उचित हक,
तभी हौसला विश्वास डगमगाया है !
बारिश में टूटी झोपड़ी और बच्चो का खाना,
इन्हीं सब ने फिर सुबह काम के लिऐ जगाया है !
हमनें विद्यालय बनायें, पर बच्चो की पढ़ाई अधूरी है !
हमने वस्त्र बनाऐं पर फटी गमछी, तौली है !
हमने ही अन्न उगाये, पर खाली राशन कि झोली है !
हमने हाथों में छालें और जला हुआ जिस्म ईनाम में पाया है,
जो भी आया वादा किया ना उचित हक दिलवाया है !
हर रोज विस्मित सा खड़ा सोचता मैं व्यथा में,
क्या आज का निवाला आयेगा दामन में ?
