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Dr. Swati Rani

Abstract

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Dr. Swati Rani

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मैं मजदूर हूँ

मैं मजदूर हूँ

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कहता है मजदूर मै भी एक इंसान हूँ,

दीन हीन ठहरा पर मै श्रमिक की खान हूँ!

धरती का नहीं कोई ऐसा कोना,

ना बहा हो जहाँ मेरा पसीना ! 


अपने रक्तसंचित हाथों से मैंने खेत लहलहाऐं है,

इसी का परिणाम है कितने पेट भर पाये है !  

ताजमहल से लाल किले तक सब हमने बनाऐ हैं,

अमीरों के शौकों में चार चांद लगाऐ है ! 


उच्च-उच्च महलों पर हमारे ही पदचाप है,

उनके एक-एक ईंट पर बस हमारी छाप है ! 

बालू, सिमेंट, रेत को आकार दिया,

पुल, रेल, सड़क रातोंरात खड़ा किया ! 


16 वीं से 21 वीं शताब्दी तक हमने इतिहास बनाया है,

मानव जाति की सौगातें अपने स्पर्श से चमकाया है !

कभी ना उतार सकोगे किमत तुम हमारे बलिदान कि,

खुद झोपड़ी में रहकर कमी ना आने दी तुम्हारे शान की ! 

कभी नहीं मिला हमें हमारा उचित हक,

तभी हौसला विश्वास डगमगाया है !


 बारिश में टूटी झोपड़ी और बच्चो का खाना,

इन्हीं सब ने फिर सुबह काम के लिऐ जगाया है ! 

हमनें विद्यालय बनायें, पर बच्चो की पढ़ाई अधूरी है ! 

हमने वस्त्र बनाऐं पर फटी गमछी, तौली है ! 

हमने ही अन्न उगाये, पर खाली राशन कि झोली है ! 


हमने हाथों में छालें और जला हुआ जिस्म ईनाम में पाया है,

जो भी आया वादा किया ना उचित हक दिलवाया है !

हर रोज विस्मित सा खड़ा सोचता मैं व्यथा में,

क्या आज का निवाला आयेगा दामन में ?


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