मैं क्यूँ सोचता हूँ तुम्हें
मैं क्यूँ सोचता हूँ तुम्हें
क्यूँ सोचता हूँ मैं तुम्हे आज बताना है तुम्हें
जरा पास आओ क्यूँ सोचता हूँ तुम्हें !
तुम्हारी खनक भरी हंसी जब गूंजती है
मेरे कानो में तब सोचता हूँ मैं तुम्हें !
तुम्हारा अक्स मेरे दर-ओ-दिवार पर
जब उभर आता है तब सोचता हूँ तुम्हें !
रात के अंधेरे में चाँद की चाँदनी बनकर
जब मेरे ख्यालों की छत पर आती हो तुम !
मेरी दी हुई वो पहली पायल पहन कर
तब मज़बूर हो कर सोचता हूँ मैं तुम्हें !
घने काले बादल जब घिर आते हैं और उन
बादलों से रिसकर बूंदों के स्वरुप गिरती हो तुम !
मुझ पर तो भीगा-भीगा मैं ऊष्मा की तलाश
में खोजता हूँ तुम्हे तब सोचता हूँ तुम्हें !
जब सुबह की पहली किरण के स्वरूप मेरे
सिरहाने पर आकर मूझे छू लेती हो तुम !
बिलकुल गुनगुने अहसास की तरह
तब मज़बूर होकर सोचता हूँ तुम्हे !
और इतना कुछ घटित होने के बाद भी
जब कभी खुद को बिलकुल तन्हा पाता हूँ !
क्यूँ सोचता हूँ मैं तुम्हें आज बताना है तुम्हें
जरा पास आओ क्यूँ सोचता हूँ तुम्हें !