मैं बेरोजगार जो ठहरा
मैं बेरोजगार जो ठहरा
ख्वाहिशों पर था मेरे मुफलिसी का पहरा ।
वो प्यार मांगती थी मैं बेरोजगार जो ठहरा ।
मैं दर बदर का आदमी वो घर की लाडली
डरता हूँ उसे देख तलबगार जो ठहरा ।
जब भी सोचा मैंने केवल सोचता रहा
हर दफ़ा बस मैं ही गुनहगार क्यों ठहरा ।
हूँ मुस्तकीम सा मैं उसे कैसे बताया जाय
उन भींगी सी पलकों का कुसूरवार जो ठहरा ।
मेरी क़ैफ़ियत पे यूँ ना मुस्कुराया जाय
वो इश्क़ की भूखी थी मैं इतवार जो ठहरा ।

