मैं और तुम
मैं और तुम
मैं दूर जाकर भी
तुम से दूर नहीं जा पाता,
तुम क्यों मुझे
हर बार अपने पास खींच लाती हो ?
तुम क्यों मुझे मुश्किलों में डालकर
स्वयं मुश्किलों में उलझ जाती हो ?
तुम भी बदल नहीं पाती
मैं भी अपनी ख्वाहिशें बदल नहीं पाता,
जद्दोजहद यह कैसी है
मैं पाकर भी तुमको पा नहीं पाता ?
मैं निष्ठुर नहीं
मैं मोम-सा हर बार पिघल जाता,
तुम्हारी नाराजगी मेरी चाहत
मैं चाहकर भी तुमको भुला नहीं पाता।
तुम एक बार कह देती
तो सब कुछ बदल जाता,
जीने का मेरा भी ढंग
कुछ नया अहसास पाता।
कागज-सी यह जिंदगी
और तुम कलम की स्याही-सी छपती गईं,
जितना भुलाना चाहा तुम्हें
और तुम उतनी अमिट होती गईं।
न तुम इकरार कर पाए
न इनकार की वजह बता पाए,
हर तरफ कशमकश-सी
न तुम जिंदगी और न मौत दे पाए।
तुम्हारा अहसास ही मेरी जिंदगी में उभर आया,
वही सुबह वही शाम बनकर नजर आया,
मैं ढूंढता रहा जिसे यहाँ से वहाँ
वही कहीं न कहीं मेरे अंदर ही नजर आया।