मैं और पहाड़
मैं और पहाड़
याद आते हो तुम
बहुत मुझे
मेरी विस्मृत स्मृतियों में
अक्सर,
जब घंटों बैठ मैं
तुम्हें निहारता
और तुम
बर्फ से लकदक
उचक कर मुझे घूरते
फिर खिलखिला कर हंस पड़ते,
कभी अपनी
ठंडी हवाओं में
मुझे मंत्र मुग्ध करते,
मदहोश कर
अपने सौंदर्य में बांध लेते,
तुम्हारी चोटियां
आसमान की बुलंदियों को छूती,
अपने विशाल अस्तित्व और
उसकी अथाह गहराई
शांत भाव से मुझे बरबस
अपनी बाहों के आगोश में लेने को मचल रही होती,
तुमने अपने बड़े होने का अहसास
अक्सर दिलाया मुझे पर
खुद से दूर नहीं होने दिया,
मेरे सारे दुख तकलीफों को साझा किया
मेरे साथ रोये भी बहुत,
पर दिया मुझे हौसला हरदम
चुनौतियों से लड़ने का
सब्र करने का,
जब जब मैं टूट कर बिखरने लगा
तुमने मुझे समेटा
मेरे अस्तित्व को स्थिरता का मंत्र दिया,
बांधे रखा ये रिश्ता
जो अजीब सा था मेरे तुम्हारे बीच
एक इंसान का पहाड़ के साथ,
हम दोनों अकेले थे
इस दुनियां की भीड़ में,
परेशान थे शायद
तभी एक दूजे के वजूद का अहम हिस्सा थे,
हम एक दूसरे के सामने
एक दूजे से बात करते,
कभी इस जहां की
कभी परी लोक की,
कभी यूं ही एक दूजे को खुश करने की,
कभी कभी ख़ामोश भी रहते
शायद मन के तार
अंदर ही अंदर
मन को जोड़ते,
बाते करते
जो तुम सुनते तो मैं कहता
और तुम कहते तो मैं सुनता,
शब्द रहित भावों से एक दूसरे को
सुनाते अपनी अपनी व्यथा,
शायद तभी बंध गए थे हम दोनों
एक महीन धागे से
एक रिश्ते में अनंत से वर्तमान तक,
तुम बेशक पहाड़ हो
जिसका अपना विस्तार है
अपनी सीमाएं है,
और मैं एक इंसान
जो तुम्हारी ऊंचाइयों के सामने
एक तुच्छ गौण सा,
पर तुमने कभी अहसास नहीं होने दिया
हमेशा अपना माना,
मुझे खुशी मे भी सुना और
दुख में फूट फूट कर रोने भी दिया,
ढांढस बंधाया
फिर सरका दिया अपना कांधा भी
सच्चे साथी बनकर,
पर आज तुम पहले जैसे ही ख़ामोश हो
मगर खामोशी मे एक दर्द है
पहले सा भाव नहीं
और पहली वाली आत्मीयता भी नहीं,
आज तुम मुझे अपने सा भी नहीं लगे,
बस बेरुखी लिए खड़े हो सामने मेरे
अजनबियों की तरह,
आखिर क्यों ??
ओह शायद मैं ही बदल गया
मुझ में ही स्वार्थपन आ गया,
मेरी भूमिका
अब शायद तुम्हारे लिए
पहले जैसी नहीं रही ,
तुम तो आज भी वहीं खड़े हो
अडिग बेहद शांत
गंभीर मुद्रा में
पर शायद
इंसानी रूप में
मेरी ही संवेदनाएं मर गई
तुम्हारे लिए।
