मैं और आत्मा
मैं और आत्मा


कई बार
मैं अलग होती हूँ,
मेरी आत्मा अलग होती है,
हम अजनबी की तरह मिलते हैं !
मेरी आंखों से अविरल
आंसू बहते हैं,
और आत्मा हिकारत से
मुझे देखती है !
दरअसल, उसने कई बार
मुझे उठाया है,
और मैं ! हर बार,
उद्विग्नता के घर जा बैठती हूँ !
आत्मा ने अक्सर
मेरे लड़खडाते क़दमों को
हौसले की स्थिरता दी है,
परमात्मा का रूप दिखाया है,
पर मैं, अक्सर अपनी
कमज़ोर सोच लिए
उससे परे खड़ी हो जाती हूँ !
मुझे पता है,
बिना उसके
मेरा कोई अस्तित्व नहीं,
फिर भी अपनी नियति का बोझ
उस पर डाल देती हूँ,
श्वेत पंखों के बावजूद
आत्मा अपनी उड़ान रोक
मेरे हौसले बुलंद करती है,
और हिकारत से
देखते हुए ही सही
मुझमें समाहित हो
मुझे एक मकसद दे जाती है।