मैं अस्मिता
मैं अस्मिता
क्यों उस अनजाने डर से,
अक्सर सहम मैं जाती हूँ,
जब भी होती हूँ सुनसान राह पर,
मन ही मन घबराती हूँ,
क्यों मेरा मन आज भी,
देख किसी अनजान को,
विश्वास नहीं कर पाता है,
एक अनजाने भय के साए से,
मन मेरा भर जाता है,
क्यों मैं अपनी ही पहचान को,
कहीं दूर छुपाना चाहती हूँ,
तोड़ी गयी सदा मैं जिस समाज में,
वो समाज भुलाना चाहती हूँ,
मैं गहना हूँ जीवन का किसी के,
है ये बात आज भी याद मुझे,
पर कमज़ोर समझ के लूट ले कोई,
ये बात नहीं बर्दाश्त मुझे,
इसलिए कमज़ोरी अपनी मैं,
कहीं दूर छोड़कर आई हूँ,
अपना जीवन बदल लिया है,
परिभाषा नयी मैं लायी हूँ,
पर कहता है ये समाज मुझसे,
मैं चली गयी हूँ गलत राह पर,
मैं अपनी गरिमा को कैसे,
यूं भुलाकर आई हूँ,
मुझमें इस बदलाव का,
उत्तरदायी जो ये समाज है,
आज मेरे इस निर्णय पर,
आख़िर क्यों नाराज़ है,
क्या ये बदलाव जीवन में मेरे,
मेरी ही एक हार है,
या हारा है वो समाज,
जिसकी गलतियों का फल,
ये बदलता हुआ संसार है।।