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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

लोभ

लोभ

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लोभ आदमी का गला काटता है

लोभ आदमी को बेमौत मारता है

उसकी भूख कभी खत्म न होती

लोभ आदमी का पेट फाड़ता है


लोभी ख्वाबों में दौलत चाटता है

लोभी रिश्तों को पैसे से जाड़ता है

लोभ आदमी का गला काटता है

भरी जवानी में उसे जिंदा मारता है


लोभी समंदर के भीतर रहकर भी,

ताउम्र प्यासा ही जिंदगी काटता है

लोभी जिंदगी के इस चौराहे पर,

ख़ुद को कंकर-पत्थर ही बांटता है


लोभ आदमी का गला काटता है

लोभी पैसे को ही ख़ुदा मानता है

पर वो ये बात भूल गया है साखी,

लोभ आदमी को जिंदा गाड़ता है


अंधेरे से जैसे रोशनी होती नही,

लोभी से वैसे अच्छाई होती नही,

लोभी आंखे होकर ठोकर छांटता है

लोभी उजाले में अंधेरे को पालता है


आज हर शख़्स लोभ साथ रखता

बिन पैसे किसी से बात नही करता

पर अंत समय पैसा साथ नहीं जाता

निःस्वार्थ कर्म ही सबको याद आता


लोभ,स्वार्थ नही,परोपकारी कर्म ही,

मृत्यु बाद भी हमें जिंदा रखता है

निःस्वार्थता इंसानो का मूल खाता है,

बिन इसके खुदा इसे जानवर मानता है!




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