लेबर अड्डा
लेबर अड्डा
सुबह की नमी मे भी सुगबुगाहट आती वहाँ,
कोडियों के भाव बिकता खून पसीना जहाँ।
कितने ही बंगले, दुकानें बनाता,
कितनो के काम आता,
फिर भी हर सुबह वो मजदूर,
उसी 'लेबर अड्डे' पर खड़ा नज़र आता.
सौ श्रमिको मे एक और मेहनती
मासूम मजबूर मजदूर जुड़ा,
भोर आते ही दिहाड़ी मालिकों
का मोल भाव शुरू हुआ।
पहला - "चालीस ?"
साहब - "हट, मत ख़राब कर मेरी पॉलिश !"
दूसरा - "और कम क्या दोगे, साहब, तीस ?"
साहब - "चुप! अपने आस-पास वालो से कुछ सीख !"
नए से - "तू क्या लेगा, बे ?"
नया - "कुछ नहीं, बस आप दो वक़्त का खाना दे देंगे ?"
साहब - "तेरे जैसा मजदूर..मेरे यहाँ क्या करेगा ?
तेरे दो वक़्त का खाना तीस रुपयों से ज्यादा का पड़ेगा !"
