क्यों कोई बोलता नहीं
क्यों कोई बोलता नहीं
ये कभी नहीं,
समझ सके कोई,
क्यों आंख नाम है ये,
खामोश सी हुई।
क्यों शहर ये बना,
मरघट के समां,
क्यों दिन सिसक रहा,
कहाँ रोशनी खोई।
कैसा उठा धुंआ,
कहाँ आग जल रही,
नया जन्म है कहीं,
कहीं मौत पल रही।
एक डर के साए में,
घुटता सा जीवन है,
चीख भी सारी,
अब मौन सी हुई।
गुमसुम से सन्नाटे ,
क्या फुसफुसाते हैं,
अंधेरों में ये साए,
किस ओर जाते हैं।
जिस ओर जाते हैं,
एक चीख आती है,
रात धूमिल सी,
होली खेल जाती है।
टप-टप टपकता सा,
पानी है नहीं क्या है,
पानी से भी सस्ता,
लहू का मोल लगता है।
जिस्म बिकते हैं,
जैसे मोल माटी का,
प्रेम का निशदिन यहाँ,
बाज़ार लगता है।
क्यों आवाज़ भी कभी,
उठती नहीं कहीं,
आक्रोश की कोई लहर,
जगती नहीं कहीं।
खिड़कियां सारी ,
क्यों बंद होती हैं,
जुगनू को भी अब रोशनी,
मिलती नहीं कहीं।
क्यों दिखे नहीं,
ललकार सी कहीं,
लड़ते अकेले सब,
क्यों साथ हैं नहीं।
क्यों डर बना बड़ा,
सच के आगे भी,
क्यों झूठ को कोई,
अब रोकता नहीं।
क्यों दिखे नहीं,
एक आग सी कहीं,
क्यों भगत सिंह से वीर,
या इंकलाब है नहीं।
क्यों सच के लिए,
कोई लड़ता नहीं,
क्यों जूठ की तरह,
सच बिकता नहीं।
ये कभी नहीं,
समझ सके कोई,
क्यों आंख नम है ये,
खामोश सी हुई।