क्यों बार बार चाँद
क्यों बार बार चाँद
क्यों बार-बार चाँद,
छुप जाए बादलों में,
अब समझा है मैंने,
शायद मेरी तरह उसका,
जिक्र भी बार-बार होता होगा।
सहन ना कर पाए वह भी,
छुपा दूँ मैं खुद को खुद से जैसे,
नज़रे ना मिलाऊँ खुद से,
ऐसे शायद बादलों के पीछे,
वह भी मेरी तरह,
छुप कर रोता होगा।
इतनी बुरी है वह अगर तो,
फिर क्यों उस चाँदनी के लिए,
लोग तरस जाते हैं।
लाख बुराइयाँ हैं उस जगह पर,
सब जानते हैं,
फिर भी तो रातें अपनी,
उन कोठो पर गुजारते हैं।
खुदा भी रोक न सके खुद को,
उसकी प्रतिमा की मिट्टी,
वहीँ से तो आती है।
लाख कोशिश करे चाँद,
खुद को बदल न सके,
उनको न सही,
उसको तो उनसे मोहब्बत है।
भले ही खुद को छुपाकर रोए,
पर उनको कभी भूल न पाए,
अपनी चाँदनी दूसरों पर,
बरसाती जाए।
फिर क्यों न मैं,
बजाऊँ उसके जैसे,
भले ही ठोकरे हज़ार मिले,
अपनी इनायत उनपे,
बरसाती जाऊँ,
भले ही लाख तड़प मैं सहूँ,
उस चाँद की तरह,
क्यों न मैं बजाऊँ।