क्या यही बचपन है
क्या यही बचपन है
कोई बचपन आज फिर भूखा है
फिर भी चैन की नींद सो रहा है
चेहरे पर आज भी वही मुस्कान
जिसे लेकर उतरा था इस धरा पर
शिकायत भी करे तो किससे
कोई सुनने वाला भी तो हो अपना
जन्म देते ही जननी दम तोड़ गई
मासूम को मालूम नहीं कौन है पिता
जरूर कोई मजबूरी रही होगी
उसने भी बांहों में कभी झुलाया नहीं
लाचारी और मुफलिसी की छांव में
कभी ये सड़क, कभी वह सड़क
भटक कर ज़िन्दगी की हर सड़क नाप डाली है
चिलचिलाती धूप हो या बरसात की बौछारें
इक निवाले की खोज में निकलता है हर सुबह
आंखों में उसके भी कुछ सपने हैं
दिल में कुछ अधूरे अरमान भी हैं
मगर मजबूरियों ने जैसे बंधक बना रक्खा है
नाउम्मीदी की सरहदों ने जकड़ा है
अपराध बोध की चुभन कचोटती है अक्सर
ना जाने कितने बचपन और होंगे
जिनको है इंतज़ार आज भी कि
कोई तो चहकती सुबह होगी उनकी भी यहीं कहीं
लाएगी जो मुट्ठी भर कर
जीने की नई आशाएँ उनके हिस्से की
चलो उसकी उड़ान को नए पंख दें
उसके जुनून को पैनी धार दें
बीमार सारी हसरतें फिर से स्वस्थ हों
आत्म निर्भर हों तमाम ख्वाहिशें
कुछ कर गुजरने की हर तमन्ना परवान चढ़े
चलो ठहरकर कुछ पल साथ इसके
थोड़ा इसके जोश थोड़ा इसके उत्साह को संवारें
दिन वह भी आयेगा ज़रूर इक दिन
उड़ान होगी आसमान से ऊंची और
अल्हड़ जिद्द के आगे
होगा हिमालय भी नतमस्तक कदमों पर
चलो आज इक असहाय बचपन को
फिर से निखारें, फिर से सजाएँ
भूख प्यास की जंजीरों को तोड़कर
बुलंद हौसलों को उड़ने दें खुले आकाश में।
