क्या समझूँ...किसे समझूँ...
क्या समझूँ...किसे समझूँ...
क्या समझूँ...किसे समझूँ...
क्या समझाऊँ... किसे समझाऊँ
अब समझ नहीं आता
क्योंकि सब समझ बैठे है की वो समझदार है
जो कल तक थे मंदबुद्धि पैसो के दम पर होशियार है
बेईमानी थी जिन के खून के हर कतरे में
कानून के सहारे ईमानदार है
पढ़े नहीं चार आखर जिन्होंने
बांटते फिर रहे ज्ञान अपार है
और खून से रंगे थे जिनके हाथ
श्वेत पोशाकों में करते श्रृंगार है
क्या समझूँ...किसे समझूँ...
क्या समझाऊँ... किसे समझाऊँ
क्योंकि सब समझ बैठे है की वो समझदार
पता नहीं कौन सी हवा चली है
जो चारों तरफ हाहाकार है
चोरी लूट की तो बात ही छोड़ो
साँसे तक छीनना मज़ाक है
कैसे सिर उठा कर चले हमारी बच्चियाँ
जब नज़रों में ही लोगों के पाप है
और गड़ जाता हूँ उसी पल ज़मीं में
जब कोई कहता है ये सब अब आम बात है
क्या समझूँ...किसे समझूँ...
क्या समझाऊँ... किसे समझाऊँ
क्योंकि सब समझ बैठे है की वो समझदार
