क्या लेके तुम्हारा गई
क्या लेके तुम्हारा गई
तुम्हें देखा तो भरी आँख भी मुस्करा गई
मेरे होंठों की हँसी हर ज़ख्म छुपा गई
मुद्दत बाद गुज़रे हो इस गली से तन्हा
सोचता हूँ, बात क्या तुम्हें याद इधर की दिला गई?
एक मैं ही तो नहीं था तुम्हारे अपनों में कभी
बड़ी लम्बी क़तार थी, क्या ख़त्म होने को आ गई?
ख्वाहिश तो बहुत थी साथ तुम्हारे रहने की
पर क्या करें? आड़े तुम्हारे ही मजबूरियाँ आ गई
तुम से दूर होकर सिवा तड़प के कुछ हासिल तो नहीं
पर ये बोझ भी चुपके से हर साँस उठा गई
खैर यही सही, तुम खुश तो हो अपनों में
एक मेरी कमी क्या लेके तुम्हारा गई ?