कठपुतलियां
कठपुतलियां
दर्द खामोशियों में, हर वक्त लिखता रहा हूं मैं,
खुद अपनी ही जुबां, में लोगों को चुभता रहा हूं मैं,
वह तीर तरकश से निकालकर, करती रही है वार,
मैं तो साया हूं उसका बेजुबां, वक्त के साथ सब कुछ सहता रहा हूं मैं।
वह मगरूर भी है, वह मशहूर भी है,
वह मिसालों से अपने वाकिफ़ भी है, निगाहों से मेरी मशरूफ़ भी है,
बंदगी में उसके रूह अपनी बिछाकर, मैं रातों में यूं ही संवरता रहा हूं।
धड़कनों की इस राह पर मैं, गिरता संभलता चलता रहा हूं।
तू उम्मीद भी है, तो मंज़िल भी है,
तू मेरे कलम से लिखी हुई खुशनुमा ग़ज़ल भी है,
वह वक्त का तराना मुझे याद होगा,
मैं तेरे लबों पे सदा धुन बनकर, जो बजता रहा हूं।
तू इनकार भी है, तो इकरार भी है,
तू एक बार भी है, तू हर बार भी है,
आशिक हूं ऊंचे इरादों का मगर क्या,
मैं राहों में तेरी सदा रूकता रहा हूं।
ना कागज से खाली, ना स्याही है ज़्यादा,
मैं हूं बस अकेला और आंधी है ज़्यादा,
मैं मुकम्मल निशा हो तेरी रहगुजर का,
मैं हर दौर में यूं ही उछलता रहा हूं।
यह तकदीर का खेल लेकर जहान में,
नचाता है रब कठपुतलियां, समां में,
वह फ़रमान भी है, वह ऐलान भी है, लेकिन ईमान लेकर, मैं दर पे उसके हमेशा, उम्मीद से ही यूं झुकता रहा हूं।