कसूर
कसूर
क्या यही कसूर के मैं यहाँ जन्मी ?
या फिर ये धरती अब पावन ना रही।
खत्म हो रही नस्लें पुरुष की ,
रह गए अब भेड़िये नरभक्षी।
जब थी मैं मासूम बच्ची ,
तब भी बेधती थी नजरें वहशी।
फिर भी खुद को समेट न सकी,
सपने लिए घर से निकली।
भूल गई कि इर्द - गिर्द पशु ही पशु,
खत्म हो रही इंसानी बस्ती।
आत्मा तो थी ही नहीं उनमें,
जैसे मौन भारत के कुर्सी धारी।
पर कितनों कि आत्मा अब भी जागती,
मेरे लिए जो न्याय ले कर रहेगी।
