क्षितिज को अपना घर बनाएंगे
क्षितिज को अपना घर बनाएंगे
कल्पना नहीं हकीकत में हमें पंख लग चुके हैं,
चलो ज़मीं से दूर चलो जहाँ बंदिशें कोई नहीं है ना धर्म का झगड़ा,
क्षितिज को कौन बाँधा है कभी सीमाओं के बंधन में ?
सभी हैं अपनों में खुश धोखा, फरेब, ईर्ष्या और द्वेष क्षितिज में है कहाँ ?
स्वच्छता, शीतलता और शांत में हम विचरते है !
रंगभेद, भाषा विवाद, नारियों पर अत्याचार की व्यथा नहीं सहना पड़ेगा,
थक गए थे हम बहुत झूठे सपने देखकर,
विचारों को भी व्यक्त करना है गुनाह कहीं,
देश -द्रोही कह के सारे ताउम्र जेलों में ना सड़ना पड़े या गोली दाग दे !
यहाँ तो देशभक्त का चोला कोई और पहन रखा है !
आसमानों पर महंगाई का नामोनिशां नहीं है,
रोजगार की बातें यहाँ पर कौन करता है भला ?
है फिक्र अपने आकाश की कौन इसको बेच डालेगा कहो जागीर है किसकी ?
हमारा ऊब गया है मन अब हम आकाश में ही विचरण सदा करते रहेंगे,
जब यहाँ “ अच्छे दिन “के सपने वस्तुतः साकार होंगे,
हम यहाँ फिर लौटकर आ जाएंगे !!
