कश्मकश
कश्मकश
हम दो पल के जीवन में सपने सजा के
ख्वाहिश गगन की किए जा रहे है
यही सारे पल है यही पर दो कश ले
कहाँ जाएंगे फिर यही कशमकश है
कांधों पे अपने हम तुमको बिठा के
जगत को ही निर्बल किए जा रहे है
सुभगता को तुम MERI सुविधा समझते
हम जीते या हारे यही कशमकश है
मुखौटों से वैसे हम डरते डराते
अब खुद भी मुखौटा हुए जा रहे है
वो संगी बैरंगी हुए थे जो अपने
अब किसे अपना माने यही कशमकश है
कश्ती मेरी समंदर से बिगड़ा करे
हम किनारे पे पहरा दिए जा रहे है
पर अल्हड़ से मन में जो सपने भर आए
वो कैसे बहलाए यही कशमकश है
है शिकायत जो सबको क्या लेखा करे
हम दफाओं की सूची लिखे जा रहे है
आलोचक भी निज के हम निज में समाए
चुप रहे या ये कह दे ये भी कशमकश है।