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एक संघर्ष

एक संघर्ष

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कुछ तुम्हारी कुछ मेरी जैसी ही थी वो,

क्या बनना है गर पूछे कोई तो कहती डाकर थी वो।

नटखट मगर बहुत थी पढाई पे ध्यान नहीं,

सब सोचे उत्तीर्ण हो जाए, क्या बनेगी इसका तो ज्ञान नहीं।

वो पूँछ बुलाती है मुझको,

मैं पीछे उसके पड़ी रहती,

पर सब भाई बहन की तरह

वो भी मुझसे प्यार से झगड़ती ।

सब पुछा करते थे हमसे,

बस दो बहने हो?

कोई भाई नहीं क्या तुम्हारा?

वो मुस्कुरा के कहती उनसे,

मैं इसकी बहन ये भाई ही तो है मेरा।

डाकर की कहानी को धुआँ सोच रहे थे सब,

जब एक दिन बोली साइंस लेना है अब।

मैं नाराज़ थी मुझको बसा इतना समझ आया,

की मैं उसकी पूँछ बनके नहीं कर पाऊँगी अब वक़्त ज़ाया।

हफ्ते भर एक फ़ोन का इंतज़ार किया,

साल में दो बार देखा उसे

उसके डाकर में ट लगाना इतना कठिन है

ये तब समझ आया मुझे।

दिन रात तो क्या महीने साल भी छात्र खोता है,

पर होता वही जो मंज़ूरे आरक्षण होता है।

हार तो नहीं मानी उसने,

प्रधान मंत्री को चिट्ठी लिखी,

जवाब के इंतज़ार में आँखें सुजा के भी नीली की।

मध्यम वर्गीय सामान्य श्रेणी तो बस एक ही चमत्कार मानती है,

सहायक कोई हो ना हो माँ पिता है ये जानती है।

मैं छोटी, शब्दों की गहराईयाँ तब ना समझ आती थी मुझे,

पिता बोले नीलाम होना पड़े हो जाऊँगा मगर डॉक्टर बनाऊँगा तुझे।

एक लहर आँसुओं की उस वक़्त तो सामान्य ही थी मेरे घर में,

वो बोली फिर से करुँगी तैय्यारी, सब कुछ लुट जाने के डर में।

एक और साल फिर वही गहरा सन्नाटा था,

पर इस बार अँधेरे के बाद चमकता उजियारा था।

लहर तो आज भी थी एक आँसुओं वाली,

पर दिल झूम रहा था संग नाची आँखें मतवाली।



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