कोई भी मौसम
कोई भी मौसम
“तर्जनी का दर्द “
(व्यंग्य )
आजकल चुनावी दौर बड़े ज़ोर-शोर से चल रहा है ।यह भारत का सातवाँ मौसम है जो देश के किसी न किसी कोने में बेमौसम बरसात की तरह बरस ही जाता है।
भारत ऋतुओं का देश है। हम सब जानते हैं। एक नहीं, दो नहीं, वरन् छः-छः ऋतुओं से भरा-पूरा, सजा सँवरा देश है।
हमें कहाँ पता था कि कितनी ऋतुएँ हैं और कब -कब बदलती हैं। किस ऋतु के बाद कौन सी ऋतु आती है । वह तो भला हो महात्मा कालीदास का जिन्होंने गम्भीर चिंतन के बाद शोध किया और शोध परिणाम को हमारे समक्ष रखा। सूक्ष्म अवलोकन पर बलि-बलि जाऊँ , कितनी बारी की से जानकारी एकत्रित की है।
हम तो छः ऋतुओं में ही खुश थे लेकिन न जाने कहाँ से एक नई ऋतु का पदार्पण हो गया और इस नई-नवेली दुलहिन की तरह आने वाली ऋतु ने सब के दिलों पर क़ब्ज़ा कर लिया । अब आलम यह है कि बाक़ी ऋतुओं को कोई याद करे न करे लेकिन इस ऋतु का बेसब्री से सभी को इंतज़ार रहता है।
आप मुस्कुरा रहे हैं। शायद आप समझ गए हैं कि मैं किस ऋतु की बात कर रही हूँ। जी हाँ आपका अनुमान शत्-प्रतिशत सही है । मैं इसी ऋतु की बात कर रही हूँ । इसी का सभी को बेहद इंतज़ार रहता है। यह ऋतु चुनाव पर्व के नाम से जानी जाती है। इसका कोई ख़ास मौसम नहीं होता लेकिन इसके आते ही मौसमों की रंगत गड़बड़ा जाती है। होली के मौसम में आए, तो होलिका के साथ जाने कितने घर जल जाते हैं। दीवाली के मौसम में आए तो जाने कितने घर के दीपक बुझ जाते हैं।माहौल ही कुछ ऐसा हो जाता है। मस्ती ही इतनी बढ़ जाती है।नशा हीकुछ कमाल और धमाल का हो जाता है कि नियंत्रण रेखा के बाहर चला जाता है सब कुछ। जितने ही प्रतिबंध लगाए जाते हैं उतने ही नियम-क़ानून तोड़े भी जाते हैं। हर कोई जीत की खुमारी में जी रहा होता है और उसे जीतना ही होता है।
बस “ मेरा बाप चोर है “
की तर्ज़ पर जब आम लोगों की तर्जनी पर यह निशान लगाया जाता है तब आम आदमी पीड़ा से मर जाता है और हफ़्ते -पंद्रह दिन जब तक वह निशान बना रहता है तब तक सिवाय रोने और खुद को कोसने के, अगला कुछ नहीं कर पाता । कर भी क्या सकता है। उसकी उंगली में कुछ हो तब तो वह करे। करना तो बहुत कुछ चाहता है लेकिन
“काश! मैं कुछ कर पाता “
वाला भाव अपने चेहरे पर लिए जीने को मजबूर रहता है।
चुनाव में चुनता तो है, लेकिन’ अंधों में काना राजा की तरह, ’यह एक यांत्रिक प्रक्रिया के माफ़िक़ करना पड़ता है, अनिच्छा से। उसके सामने विकल्प ही ऐसे होते हैं कि इधर जाए तो कुआँ, उधर जाए तो खाई। वह क्या करना पसंद करेगा, उसकी इच्छा बस इतनी ही रह जाती है। किसी एक में गिरना ज़रूरी है क्योंकि यह भी देशभक्ति है । यह भी बलिदान माँगती है। देश के लिए इतना बलिदान तो देश के हर नागरिक को करना ही चाहिए। करता है। आसमान से गिर कर खजूर में अटकी ज़िन्दगी जीने को मजबूर, जीता है।
तर्जनी का दर्द पाँच साल तक नहीं जाता। थोड़ा फीका पड़ता होगा शायद, पर फिर चुनावी मौसम आ जाता है और दर्द हरा - भरा हो जाता है और नया दर्द फिर से उँगली पर चिपका दिया जाता है।
