कोई और ख़ास फर्क नहीं
कोई और ख़ास फर्क नहीं
तुम सोचती होगी बाद तुम्हारे
काफी कुछ बदला होगा
मैंने हुलिए को थोड़ा बिगाड़ कर रखा होगा
और पहनावा भी अजीब -ओ -गरीब होगा
मैं गुमसुम बैठा रहता हूँगा
और यूँही रो देता हूँगा
मगर जानां,
कुछ भी तो यहां नहीं बदला है
सब वैसा ही है जैसा तुम छोड़ गयी थी
मैं वैसा ही हूँ जैसा तुम्हें पसंद न था
बस वक़्त आज भी वह
ी ठहरा है
कभी अज़ब गज़ब सा हुलिया रखे
गुमसुम सा बैठा रहता हूँ
और कभी जब कोई नम आँखें देखता है तो कहता हूँ
"अभी बारिश में आंखे धो कर आया हूँ "
थोड़ा निकम्मा भी हो गया हूँ
कटता ही नहीं ! है ! न ही गुज़रता है
नींद थकावट से आती है पर सपने नहीं आते
तुम्हारे जाने से कोई और ख़ास फर्क नहीं है..