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Anita Sharma

Classics

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Anita Sharma

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कलंकिनी बहू

कलंकिनी बहू

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वो प्रीत के मनोरम स्वर्णिम पल 

दफ़न क्यों हुए चारदीवारी में, 

वो जुड़ रही थी या टूट रही थी 

जलते से या बुझते अरमानों में, 


वो प्रेम या वेदना के पल कहूं या

तार तार हुआ सपनों का महल 

कौन देगा उस दुःख को गठरी का हिसाब 

जो करुण क्रंदन करती ये चौखट बेहिसाब 


गवाह तो सब है गुजरती है वो किस पीड़ा से 

ये चरमराते द्वार ये खटखटाती खिड़कियाँ 

ये सीलन मैं उखड़ती दरो दीवार 

क्या उकेरूँ शब्दों मैं उसकी छुपी दास्ताँ को


कैसे लिखूं वो जर्जर अनुवाद लड़खड़ाती जुबां से

कराहती आह सी वो आवाज़ कैसे सुनूं

कष्टप्रद रूंधते गले की पुकार समेटना तो

चाहती हूँ उसके दर्द को अपने अंदर


क्यूंकि स्त्री हूँ स्त्री की वेदना को पढ़ सकती हूँ

शायद बन सकूं मैं उसकी आवाज़ लेकिन

ये क्या बढ़ते उजाले के साथ फिर वो तैयार है

एक नवेली दुल्हन की तरह भूलकर अपने ज़ख्मों के दर्द 


और आंसुओं का उमड़ता सैलाब वाह !

गज़ब है ये रचना स्त्री रूप में सहती

कितनी यातना दुःख और अपमान फिर भी

मुस्कुराती उजली सुबह सी छाप लिए


कलंकिनी की वो हरपल लेकिन

उसी धुरी पर घूमती तत्पर है जैसे 

बनने को अपने उसी कुनबे की पहचान।


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