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Deepak Sharma

Romance

3  

Deepak Sharma

Romance

कल रात

कल रात

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कल रात फिर 

बुन रहा था

कुछ लफ़्ज़

मन के भीतर


मचल रही थी

कविता सी कोई

कुछ छटपटाहट

दिल में हो रही थी

की लफ़्ज़ मिले


तो बाहर निकले

कुछ सोच तेरा नाम

लिख के काग़ज़ पे 

सबसे ऊपर


लफ़्ज़ जोड़ने लगा 

याद आ रहा था

पहली मुलाक़ात से

आगे चलने का 

सिलसिला


बस स्टॉप की यादें

बहानो के फ़ोन

पार्क की नरम घास

काँधे पे सिर टिकाए

धीमी आवाज़ में 

की हुई बातें सब


कल रात फिर 

बुन रहा था

कुछ लफ़्ज़

मन के भीतर


कैसे लिखूँ सब

की एहसास तो,

समझे जाते हैं

जज़्बात कब

बया हो पाते हैं


नवजीवन देती

आँखें तुम्हारी

अमृत रस के

प्याले लब

नर्म उँगलियों का

प्यार भरा

स्पर्श


कड़ी धूप में

घटा हो जाना 

ज़ुल्फ़ों का


कल रात फिर 

बुन रहा था

कुछ लफ़्ज़

मन के भीतर 


बरबस हँस पड़ा

मन

सब याद कर रहा था

हौले हौले

सुनो अभी उठना मत 

मेरे काग़ज़ के छोर से

सदा की भाँति

भाग मत जाना 


मैं ज़रा आँख मूँद

देख लूँ तुम्हें

फिर लिखता हूँ

तुम्हें 

तुम्हारे बारे में

की पूरी हो सके 

मेरी कविता


कल रात फिर 

बुन रहा था

कुछ लफ़्ज़

मन के भीतर।


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