बहुत देर से सोच रहा हूँ..
बहुत देर से सोच रहा हूँ..
बहुत देर से सोच रहा हूँ....क्या लिखूँ
तुमको कितना लिखुँ, तुम्हें क्या लिखूँ
तुम्हें गुलाब भी कह दिया है, चाँद भी
तुम्हें कभी ख्वाब पुकारा है, याद भी
तुमसे दूर हो कर तुम्हें महसूस किया है
कि इस शिद्दत से तस्वीर को जिया है
कागज़ महज़ कागज़ ही तो ठहरा
क्या उतार पायेगा वो मुकम्मल तुमको
तुमको लफ्ज़ बाँध पाते तो लफ़्ज़ों से
क्या यूँ ही जाने देता पल पल तुमको
कई बार पहुंचा हूँ तुम्हारी नर्म उँगलियों तक
बस कुछ अल्फ़ाज़ों की दूरी रह जाती है
मेरा कागज़ मेरी कलम के होंठ ताकता है
तुम्हारे इंतज़ार में हर नज़्म अधूरी रह जाती है
बहुत देर से सोच रहा हूँ....क्या लिखूँ

