कितना अजीब है
कितना अजीब है


कितना अजीब है?
अपने माता-पिता के करीब होते हुए भी,
हम उनके इतना करीब नहीं हो पाते,
जितना कि हम किसी अजनबी को समझने लगते हैं,
हमें लगता है कि वो हमें समझता है,
मग़र जिनके हाथों आज इतने बड़े हुए,
उनके होते हुए खुद को अकेला समझते हैं।
बस फर्क सिर्फ इतना है कि वो जता नहीं पाते,
और जो जताने लगता है उसे बस अपना मान लेते हैं,
दोस्ती दुश्मनी समझ नहीं आती,
जो करीब हैं, पास होते हुए भी दूर लगने लगते हैं,
और करीब आने वाले भी हमें दूर करने में लगे रहते हैं,
और हम फिर से खुद को अकेला समझने लगते हैं।
>सच में बहुत अजीब है,
जो हमें कभी समझता था,
हमारी समझ से परे हो जाता है,
और हम फिर किसी अपने की तलाश करते हैं,
हमें समझने वाले हमारे करीब हैं,
और हम खुद ही समझ नहीं पाते हैं।
अजीब बात ये भी है,
हम खुद को ही समझ नहीं पाते हैं,
और फिर भी खुद को ही महत्व देते रहते हैं,
अपने में ही इतना उलझ जाते हैं,
किसी को समझने की कोशिश ही नहीं करते,
हमारा करीबी हम से उन्हें समझने की उम्मीद कर सकता है,
ये भी तो हम नहीं समझ पाते हैं।
सच में बहुत अजीब हैं हम,
खुद के सामने अपनों की अहमियत कम लगती है।