किताब थी कोई पुरानी
किताब थी कोई पुरानी
किताब थी कोई पुरानी
पन्ना पन्ना बिखरी हुई
देख के उसको न जाने क्यूं
जिंदगी जैसे याद आ गई
टुकड़ा टुकड़ा देख उसे
जब समेटना मैंने चाहा
झोंका हवा का उन पन्नों को
न जाने उड़ा ले गया कहाँ
मैं भागी उनके पीछे
मगर सब तितर बितर हुए
अपने आसमानों में उड़ गए वह
और कुछ घाव जैसे मेरे भीतर हुए
चंद शब्द ही पढ़े थे मैंने
बाकि थी लिखावट पूरी
वह लौट के ना आए
मैंने पीछा करना न समझा जरूरी
उड़ जाने में उन पन्नों के
कसूर हवा का नज़र नहीं आता
क्यूंकि इन हवाओं का चलना
किसी एक तरफ़ ही तो नहीं होता
तो दुआएँ देकर उन पन्नों को
मैंने फिर थामी अपनी किताब
जो बिछड़े जो रहे
उन पन्नों का जो किया हिसाब
तो बस कुछ ही पन्ने
उस डोर में सलामत थे
कुछ लिखे कुछ कोरे
अब वही मेरी अमानत थे।