खोया प्रतिबिंब
खोया प्रतिबिंब
कभी सोचती हूँ ऑंखें बंद करके,
तो कुछ धुंधला-सा नज़र आ जाता है,
कोई धूप में भीगा दूर खड़ा,
शायद मेरी ही ओर देखता जाता है।
मैं पास उसके जाऊँ तो,
चेहरा अपना वो ढक लेता है,
मैं चाहूँ उसको रोकना तो,
बिन कहे कुछ बस चल देता है।
रात में छिटकी चॉंदनी जब,
पलकों को मेरी सहलाती है,
मेरे सपनों की भी ज़मीन मुझे,
परछाई उसी की दिखलाती है।
भागती हूँ उसे छूने तो,
एक हँसी गूँज-सी जाती है,
शायद मेरी नाकामी पर,
उपहास वो मेरा उड़ाती है।
परछाई फिर उसकी कहीं खो जाती,
और मैं बस सोचती ही रह जाती,
वो है कौन ? क्या कहना है उसे।
मुझे इस तरह से क्यूँ छलना है उसे,
कि तभी कोई दूर से आता है दिखता,
वही धूप में भीगा जिस्म था जिसका।
मैं हैरान होती वो सोचकर,
वो अजनबी ना था ये देखकर।
पर फिर भी पहचान ना पाती उसे,
ये जान बहुत हँसी आती उसे,
वो बोला हाथ रख मेरे हाथ में,
ऑंखें बंद करके बस चल मेरे साथ में।
ऑंखें खोली तो,
सामने कुछ और होता है,
भूली बिसरी धूल जमी,
यादों का दौर होता है।
मेरे पुराने खिलौने, झूले वो सारे,
सामने मेरे वो ले आता।
जहॉं ज़िद करके उन्हें खरीदा था, झूला था,
उस सावन के मेले की याद दिला जाता।
सब दोस्त पुराने, टीचर की मार,
ना पढ़ो तो डांट पर ढेर सारा प्यार।
घरघर का खेल, गलियों में रेस,
करना शैतानी, बनाना भोलों सा भेस।
चवन्नी चुराकर चूरन खाना,
कभी एक रूपए की शर्त लगाना।
रट रटकर मॉं को कविता सुनाना,
पिताजी का गणित का हल जुतवाना,
पंचतंत्र, परियों की कहानी,
छुट्टियों में जो खुद पढ़कर जानीं।
खुशबू उनके हर पन्ने की,
आज भी दिल को महका जाती है।
ये सब देखती अपने सामने तो,
याद बचपन की छूकर जाती है।
वो आता फिर पास मेरे,
और पूछता मुझसे कौन है वो,
वो था मेरा ही प्रतिबिंब,
मेरा बचपन…मर चुका था जो।
जा रूकता वो फिर एक सूनी जगह,
जहॉं थी कब्र मेरे बचपन की।
उसकी रूह आयी थी मेरे पास,
यादें लौटाने मेरे बचपन की।
वो बोला जब भी ज़िन्दगी,
लगने लगे है कुछ कठिन।
बंद करके ऑंखें उसे याद करूँ,
मन बहलाएँगे बचपन के वो दिन।
बस, यह कहकर वो चला गया,
तब से मेरा बचपन,
मेरे सपनों में ही रह गया।