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प्रेम -पत्र

प्रेम -पत्र

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याद है तुम्हे वो दिन ,

जब जज़्बात उतरते थे पन्नो पे?

नीली स्याही में लोग पिरोते थे लफ्ज़,

जो आ ना सकते उनके लबों पे

मैंने सोचा लिखुँ मैं भी

एक प्रेम-पत्र तुमको,

कुछ ऐसा जो कभी कहा नहीं

वो बयां करूँ तुमको।


इज़हार या शिकायतें पढ़ने की

जानती हूँ तुम्हें आदत नहीं,

वादा है चंद पंक्तियों का ही,

क्या इतनी भी मुझे इजाज़त नहीं?

खैर, जो भी तुम कहो,

शुरुआत मैं करती हूँ

सालों पहले, मीलों के फ़ासले तक ,

तुम्हें लेके चलती हूँ।


जी तो दोनों रहे थे अपनी अपनी ज़िन्दगी

बे-ख़बर एक दूसरे के होने से,

वक़्त ले आया इतने क़रीब हमें

डर लगता है तुम्हें अब खोने से,

आज भी याद है जब तुम्हें देखा था

तुम्हारी बेबाक़, बेपरवाह सी चाल

और अपना दिल हाथ में लिए,

जैसे अपना वक़्त तुमने रोक रखा था।


मैंने कितनी बार चुपके से,

तुम्हारी हंसी को आँखों में क़ैद किया था

सोचती थी क्या कोई ग़म नहीं तुम्हें?

या फ़िर ग़मों को हंसी का भेष दिया था,

कहने को हम दोस्त थे पर

तुम्हारी कही हर कहानी को मैंने तोला था

तुम्हारा अनकहा तुम्हारे लफ़्ज़ों से भारी निकला,

तुम्हारा दिल जैसे मेरे दिल से बोला था।


वक़्त गुज़रा, इज़हार हुआ

हम दोस्त से ज़्यादा बन गए.

कभी इकरार और कभी तक़रार में,

अनकहे जीवन-साथी बन गए

हाँ मैंने बहुत झगड़े किये हैं,

तुमने भी दिल दुखाया है

फिर भी हर रात की सुबह में,

हमने एक-दूसरे को पाया है।


यह सिर्फ प्रेम-पत्र नहीं,

शुक्रिया है हर पल के लिए,

हर हंसी, हर अश्क़ के लिए,

शुक्रिया है।

हर ख़ुशी, हर दर्द के लिए

अपनी गोद में सर रखने के लिए,

अपना दिल मेरे हाथ में रखने के लिए,

नासमझ थी, सोचती रही

सिखा रही हूँ तुम्हें,

पर शुक्रिया…. मुझे इश्क़ सिखाने के लिए।         


 


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