अनकही कहानी
अनकही कहानी
दिखता है मुझे हर सुबह,
बंद खिड़की से अपनी यह नज़ारा,
नीला आसमान माथे सजाकर सूरज़,
करता है रोशन जहॉं यह सारा।
लगता था अब तक,
शायद सच होगा यही,
पर सोचने बैठी कुछ देर तो,
वजह सामने आयी कुछ नयी,
आसमान तो है आशिक़,
सूरज एक बहाना,
बिखरे, सुनहरे नूर में जिसके,
भीगे धरती, पाए रूप सुहाना।
चौंधियाती उस चमक में रोज़,
देखे है गगन उसकी ही ओर,
हसीन सज़ा उस इश्क में,
हो गया वो भी घायल,
देख़ देख़ सदियों से धरती को,
बन बैठा उसका कायल।
पहर चले जब सूरज ढले,
उठे आसमान में यूँ कुछ ज़लज़ले,
कैसे धरती का वो पाए नज़ारा,
रोशन हो जब तक,
सुबह का सितारा।
यह सोच-सोच उसका जिया जो तरसा,
घिर आए मेघ और सावन बरसा,
डूबी जो धरती गगन के ग़म में,
बन गयी बूँदें जलते अंगारे,
उठे ज़मीन से, छिटके जो शब में,
कुछ बने चॉंद कुछ बने सितारे।
यूँ छाई चॉंदनी धरती के तन पे,
खिल उठा रूप उसका कुछ ऐसे,
ओस की बूँदों में भीगे पत्तों से,
टकराकर बिखरता नूर हो जैसे।
दिन में रोशनी रात में चॉंद,
अब देती हैं पहरा हर उस क्षण,
जब दूर क्षितिज के किसी सिरे पे,
मिलते हैं धरती और गगन।
है यह चाहत की अनकही मिसाल,
जो नहीं शामिल किसी इतिहास में,
देती है गवाही पर दुनिया को....
जहॉं बहे फिज़ा लेकर जज़्बात,
वहॉं बसे इश्क हर सॉंस में।