कही खो गए हैं हम
कही खो गए हैं हम
अपनी खिड़की से देखते हुए,
कभी कभी मैं सोचती हूँ कि
क्यों रविवार की लुभानी सुबह भी लोग
गंतव्य को जाने की होड़ में
बस चले जाते हैं।
क्यों उन लोगो के लिए
छुट्टी का एकमात्र दिन भी
आभार के लिए न होकर,
सप्ताह भर छुट गए कामो को
भेंट चढ़ा दिया जाता है।
क्यों रोज़ के हो-हल्ल से दूर
लोग खुद को तलाशने के बजाय
बस अतीत-भविष्य के चक्रव्यूह में
फसे चले जाते हैं।
मगर कुछ देर यू ख्यालों में खोए रहने के बाद
यह सत्य मेरे अंतरतम से उभर कर आहट देता है कि
शायद मैंने भी अनजाने में इस भीड़ का हिस्सा बन कर
खुद को खो दिया है।
