खिड़की
खिड़की


मेरी खिड़की के चांद, सुनो,
पल दो पल, दिल की बात करो।
ख़ामोशी से एकटक तकते हो,
किस्मत पर मेरी हँसते हो।
तुम बात करो मेरे सपनों की,
सांझ सवेरे जो देख रही हूँ ,
मेरे घर की देहरी पर बैठी,
अभिलाषाओं की चादर ओढ़ रही हूँ ।
तुम बात करो आशाओं की,
नयनों के दो मोती लुटा रही हूँ
अपनी तुलसी के क्यारी में,
उम्मीदों का दीपक जला रही हूँ ।
तुम बात करो मेरे दिल की,
हर एक धड़कन जोड़ रही हूँ ,
मेरे अपनो की चिंता में क्यों,
धूं धूं सी जलती, दम तोड़ रही हूँ ।
तुम बात करो ना खुशियों की,
राहें तकती सी थकने लगी हूँ ,
पल हर पल कम होते लम्हों से,
कुछ लम्हों को लपक रही हूँ ।
तुम बात करों मेरे अश्कों की,
पलकों के कोरों पे सजा रही हूँ
बारिश की बूंदो मे भीग भीग,
चुपके से इनको छुपा रही हूँ ।
तुम बात करो ना मेरे चाँद की,
तुम्हें हमराज बना रही हूँ ,
अपने जीवन की उलझन को,
देखो ! कैसे तुम संग बांट रहीं हूँ।