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खानाबदोश है ज़िन्दगी

खानाबदोश है ज़िन्दगी

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खाना-बदोश है ज़िन्दगी,

खाना-ज़ार हुए जाती है,

तबियत बदलती नहीं,

दिल-ए-जज़्बात,

ख़ाक-ज़ार किये जाती है,

हुस्न की तौफ़ीक़ पर,

लम्हा दर लम्हा,

तंज कसे जाती है,

उम्मीदों के बादल पल,

दो पल हवा किये जाती है।


वफ़ा का जाम,

हुस्न की कशिश,

सैलाब-ए-अरमान,

और वो संगदिल,

आराइश में उतर कर,

साँसों का कमाल,

रूह को बेवजह,

बदनाम किये जाती है।


दिल्लगी कहें या,

कहें दिल की लगी,

रात रात भर नींद,

बर्बाद किये जाती है।

उनको देखे से जो,

आँखों में आता है नूर,

कहे क्या, क्या कर जायें,

हौसला-ए-ईमान फ़नाह,

किये जाती है।


बारीकी से सुलझे थे,

कदम दर कदम,

मंज़िल क्यों ये कोसों,

दूर दिए जाती है।

बहला रहे हैं बस,

अब धड़कनों को अपनी,

वगरना ये तेरे नाम हुए जाती है।


आतिश ना समझना,

मेरी हार-ए-यार तुम,

हुए नाम-ओ-नस्बूत,

तुम्ही में जिये जाती है।

नाला मेरी फ़तेह का एक,

बार तो सुनते जाओ,

किस्सा ये जलसा-ए-इश्क़,

मंतरीन कहे जाती है।


फ़ौरन आ जाओ बिन,

कोई लम्हा गवाये,

मेरी जान के में सदक़ा बिछाये,

फ़लसफ़े को भी ना ये,

ठहर जाती है,

बस मुसलसल ही,

मुक़म्मल दौड़े जाती है।


ठहर गया जो,

थक कर पीछे रह गया वो,

शमशीर-ए-सुलेमानी है ये,

तार तार किये जाती है।

अलादीन हो या कोई हो,

अल्लाउद्दीन या हो 'हम्द' कोई,

हज़रत-ए-दीन,

सबकी निग़ाहों की नज़र बन,

असद-ए-अमाल रोशन हुए जाती है।


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