आजादी
आजादी
रात के अंधेरे मे
इस सुनसान जंगल में
नहीं लगता उतना डर
जितना लगता था
महल की उस चारदीवारी मे
कभी इज़्ज़त के लिए
और कभी संस्कार के लिए
कभी व्यवहार के लिए
और कभी साजो श्रृंगार के लिए।
यहा तो खुली है जमीन
खुला है आसमान ।
इंतजार है अब सुबह है
जब रात ढल जाएगी
दूर हो जाएगा ये अंधेरा
चारो तरफ सूरज की
किरणें फैल जाएगी
फिर यही बना के
एक छोटा सा आशियाँ
हमेशा के लिए बस जाएगी
जहां ना होगा समाज के
रीति रिवाजों का डर
ना होगी चारदीवारी की परम्परायें
ना कोई नियम कानून सताएगे ।
