खामोश रहती मेरी शामें
खामोश रहती मेरी शामें


खामोश रहती हैं मेरी शामें तेरी जुदाई में,
सफ़र-ए-ज़ीस्त गुज़र रहा अब तन्हाई में।
दिल में नासूर बन रही हैं अब तेरी यादें,
ज़रा झाँक कर देख ज़ख़्म की गहराई में।
वही झील के किनारे जब जाकर बैठती हूँ,
दिखता पानी में तेरा अक्स मेरी परछाई में।
जुनून-ए-इश्क़ में होने दो अब सजा-ए-कैद,
कि नहीं है मज़ा कैद-ए-इश्क़ से रिहाई में।
इश्क़ के रोग का हक़ीम भी मरीज निकला,
नहीं इलाज मर्ज़-ए-इश्क़ का किसी दवाई में।