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खामखां

खामखां

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आलसी में कहता मुझसे,

क्यूं करू कुछ खामखां,

फिर सोचने लगा अचानक

बैठा यूं हीं खामखां

चल रहा न जाने कब से

थक रहा हूं खामखां

फिर बैठकर सोच रहा हूं

बैठा यूं ही क्यूं खामखां

रातों के सपनों में जागी

नींदे कब से अधूरी हैं

चलना कितना और पता ना,

पता नहीं क्या दूरी है

क्या पैरों के छाले हैं झूठे,

दर्द उठ रहा खामखां

क्या दवा करूं या दुआ करूं मैं

या चल पडूं फिर खामाखां

देखकर तुझको आज हुआ जो,

दिल पर तेरा राज हुआ जो

उठ खड़ा हुआ खामखां

वजह कोई इस बार नहीं थी,

चल पड़ा बस खामखां

खुली हुई जब बाहें थीं,

क्यूं कटी हुई दो राहें थीं?

फिर हाथों में तेरा हाथ नहीं था,

अगले पल तू साथ नहीं था।

सहमा हुआ फिर गिरा अकेला,

और सोच रहा था खामखां

दिल पर इतना बोझ लिया क्यूं?

साथ चला क्यूं खामखां?

आगे जाऊं या मुड़ जाऊं,

चलूं कहीं पे, या रुक जाऊं?

नासमझ इस असमंजस में,

फंसा हुआ सा खामखां

जीवन पाने जीवन पथ पर,

मैं बैठा यूं हीं खामखां।


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