उसी रेल की पटरी पर
उसी रेल की पटरी पर
पहली बारिश से पहले ले जाते काश
छोड़ आते मुझे उसी रेल की पटरी पर
जहाँ से सिर्फ रेल बढ़ गई थी आगे
थम गया था वक़्त और हम-तुम
फिसल गई थी छुअन हाथों से
और रह गया था रंग...खुशरंग तितली
जो तुम्हारे हाठों को चूमकर आ बैठी थी
मेरे हाथों पे...रंग गए थे बादल! हमारा साथ
वो हवा पे लिखे अल्फ़ाज़ वो झरती हुई फुहार
पहले पहल भींजा था मन! और आँगन!
सजने लगा था दर्पण...और समय का आवर्तन
वो जाती हुई रेल...वो संयोग का खेल
वो हवा में हिलते हाथ...वो अधूरी बात
एक भरा-पूरा इंतज़ार! एक भरी-पूरी बरसात
भीगे से ताज़ा रंग और खुशबू की सौगात
लुकछुप चाँद ! और तुम्हारे होने का एहसास
और अब! ये ठहरी हुई रेल...समय का खेल
ख़ाली आँखों का इंतज़ार...ख़ाली सी बरसात
ये उदास सा चाँद ! ये रुकी-रुकी सी बात
ले जाते हाथ थाम कर उसी रेल की पटरी काश
शायद वहीं मिल जाता हमारा छूटा हुआ साथ
खिल उठते कुमुद! हँस उठता चाँद...
हमारे अधूरेपन की तलाश में चल पड़ती रेल
और हम-तुम एक-दूसरे की आँखों में! साथ-साथ!
हो जाती फिर से सतरंगी सी बरसात मनरंगी सी बात।