मन तो खूब समझता है
मन तो खूब समझता है
लहरों का उठना और गिरना मन तो खूब समझता है
रेशा-रेशा बादल बनना मन तो खूब समझता है,
सुख-दुःख की बदली का झरना कितने रंग बरसता है
आँखों में खिलते इंद्रधनुष से सुंदर भी कुछ लगता है,
जाने कैसा छलमन होगा जो सपनों को ठगता है
ऋतुल मृदा में स्मितबीज लगाना किसको खलता है,
ईर्ष्या, द्वेष, व्यभिचार और निंदा हृद की ही दुर्बलता है
असमान को देखो विस्तृत छायावर सा रहता है,
प्राण! प्राण को देता धरती की तृषा समझता है
देखो पर्वत लगा समाधि करुणमना सा बहता है,
राग-विराग का सत्य अनूठा बैठा मौन ही कहता है
सूरज सीने पर रखकर बातें समीर से करता है,
भटके बादल के तपते मन में ठंडक भर देता है
और ये पक्षी पंखों पर आनंद की पाती ले फिरते,
भूमन का मर्म भाषित इनमें सारा खगोल पढ़ लेता है
धरती भी तो वर्ण-वर्ण मातृत्व लुटाती है तुमपे,
शष्य-शाक, फल-फूल, खनिज संपदा तुम्हें नित देती है
नहीं कोई है वचन पर हर क्षण प्रीत निभाती है,
क्लांत कोई अनिकेत न हो दैखा है तरु बन छा जाती है
प्रकृति की पाठशाला विसंगति न कोई सिखाती है,
छल-कपट निपट व्यभिचार न जाने तुममें कैसे भर जाता है
कृत्रिम यांत्रिक षड्यंत्रों में रोमांच भला क्या आता है,
नन्हीं-नन्हीं मुस्कयानों संग हँस देने में क्या जाता है
कौन है ठेकेदार समय का यम का व्यापार चलाता है,
जो भी है ये मानवता को पंगु करता जाता है
सबके हिस्से का गठियाता मासूमों की रोटी छीने लाता है,
कोई उसे बताए क्या कोई पेट से ज़्यादा खाता है
निशदिन श्रम समरस धरती भर तो नित उपजाता है,
फिर धरती पर कैसे निरीह कोई भूखा ही सो जाता है
ये लालच के गोरखधंधे दो चार रोज़ तो चलते हैं,
लूट-पाट खींचातानी में जन्म विरथ हो जाता है
जो भवितव्य की साख रखे सच्चा इतिहास बनाता है,
और नहीं तो रत्न धरा का यहीं धरा रह जाता है
माया का मारा मन रोता आया रोता ही जाता है,
सच्चा साधक वो कि जो निर्मल मुस्कयान लुटाता है
जाते-जाते भी जीवन को सम्बल दे जाता है,
एक समर्थ मानवता का बीज यहीं रख जाता है
ऐसे पुरखों की थाती ये हरी-भरी धरती अपनी
देखना होगा जीवन की हरियाली कौन बचाता है!
