चलो चाय पर मिलते हैं
चलो चाय पर मिलते हैं
शिक़ायत नहीं कि तुम क्यों नहीं आए
इन्तज़ार से फ़ारिग एक कप चाय...
चीनी थोड़ी कम तल्ख़ नहीं गरम
कुछ भरम हो तो टूट जाए
कलम कहती है ये सादा कागज़
आज सादा ही रहने दिया जाए
पर चाय है ज़नाब रंग चढ़ता है
नशा बोलता है उतरती है हलक़ में
शाम गाढ़ी! एक सूरज मन में डूबता है
टेश ख़्वाब नीली नदी में धीरे-धीरे
और खुशबू भरती है रात के फूलों में
आख़िरी घूँट से पहले ज़बाँ के ज़ायके में
मन के द्वीप पर अपना सा चाँद खिलता है
अकेली चाय पर जब ख़ुद से कोई मिलता है!

