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Surjeet Kumar

Tragedy

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Surjeet Kumar

Tragedy

कड़वे सच

कड़वे सच

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पूर्णिमा के चमकते चाँद को वो

अमावस मे ढूँढने जाते हैं।

मरहम कहाँ मिलेगा उनके पास

जो ज़ख्मों पर नमक लागते हैं।


इस धरा को गोल बता कर वो

बातें गोल गोल कर जाते हैं।

तारे क्या चमकेंगे रातो में

यहाँ सूरज को ग्रहण लगाते हैं।


जंगल की मनोहर हरियाली को वो

काट- काट कर शहर बसाते हैं।

नदियाँ क्या निखरेंगी कंचन सी

यहाँ सागर तक दूषित कर जाते हैं।


जड़े जमी हुई देख कर वो

आरी से शाखाएँ गिराते हैं।

ईर्षा की अगन मे जलते हुए

नफ़रत की ज्वाला भड़काते हैं।


बहार का नज़ारा दिखा कर वो

पतझड़ सा मौसम ले आते हैं।

मुस्कुराना था जिन बातों पर

वहाँ मुँह फुला कर बैठ जाते हैं।


खिली हुई कलियाँ देख कर वो

उपवन को नज़र लगाते हैं।

हाथ बढ़ा कर दोस्ती का

खंज़र पर धार चढ़ाते हैं।


फागुन के मस्त महीने में वो

गुमसुम दिल-रात बिताते हैं।

उनसे भले तो हम ठहरे जनाब

जो बिरह मे भी ठहाके लगाते हैं।


सावन की बरसती रिमझिम में वो

बंद कमरों मे वो चुस्कियाँ लगाते हैं।

गमों से झलकते आंसुओं को भी

घड़ियाली आँसू बताते हैं।


राजा मंत्री बने हुए वो

समाज को टुकड़ों में बाँटते जाते हैं।

हम भी कितने समझदार हुए

जो इनकी बातों में आ जाते हैं।


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