ख्याल
ख्याल
जनवरी की सर्द रातों में
एक ख्याल है जो मुझे गरमा रहा है
कबसे सोच रहा इस संकट को
मामूली मालूम हो रहा लेकिन
पहाड़ों को नीचा दिखा रहा है
आज नए आयाम, नयी राहों की खोज में
प्राप्त समाधान को खो दिया
अच्छा बनने चला था घर से
खुद को बदतर बनाकर लौटा हूं
तेरी, मेरी, उसकी सबकी सोच जमी है
सौ फुट अंदर जमीन मे धसी है
पता नहीं कब कोई इसमें खुदाई की
सोच भी ला पाएगा
तू यही रुक, मैं खुद को बढ़ा कर आता हूं
फिर जमी बर्फ को भी पानी डालके पिघालेगे
ये बातें नादानियत से भरी है
और सच्चाई से अनजान भी
मेरी कमियां डसती है मुझे
पाप को ही जीतते देखा है
पुण्य तो डर डर के जीता है
और मैं भी
अब आजादी को अपने से दूर जाते देख रहा हूं
क्योंकि मेरी उम्र सलाखों से मुहब्बत कर रही है
जिम्मेदारियों से वादा कर रही है वस्ल का
लेकिन नादानी के आगोश में बीत रही है।