वैदेही
वैदेही
वैदेही, सोचती हूँ,
किसने रखा तुम्हारा नाम?
पर ठीक ही रखा,
" देह" विहीन तुम,
कभी किसी चित्रकार की ,
तूलिका ने तुम्हे उकेरा,
भर अपने मनपसंद रंग,
तो कभी शब्दों ने तराशा,
किसी कवि की कल्पना,
औ" किसी लेखक की रचना,
और कभी-----
पिता, पति और पुत्र के साथ चलती,
सचमुच वैदेही,
तुम्हारी अपनी देह है ही कहाँ,
सबके अपने अपने सांचे,
जिनमे ढलती रही,
एक आकृति बन कर तुम,
सबने गढ़ा, सबने पढ़ा,
पर न समझ सका,
कोई तुम्हारा मन,
वैदेही, सचमुच तुम देहहीन देह सी!
