कबाड़
कबाड़
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श्वेत केशों में
समाए अनुभव
मिचमिचाती आँखों से
निहारती ड्योढ़ी को
रह-रह कर भरती उसाँस
पोंछती आँसू की कोर
वह बैठी
निस्सहाय जर्जर गात
यादों के जंगल में
ढूँढती खुशियाँ
भरे-पूरे घर की चहक
दीवारों से सुनती
लटकते मकड़ी के जाले में
देखती बंधन
जिसने बाँध रखा है उसे
उन यादों से
जो बेवजह देती है दुख
बरसता आँखों से पानी
झुकी कमर पर
लादे बोझ उपेक्षा का
बैठी आस खिड़की खोले
कि कभी तो कबाड़ भी
आ जाता है काम
शायद........…
भोर की उजली किरण
जला दे चूल्हा
बजने लगे बर्तन
नाचे सुगंध
और पोंछ कर आँखों की कोर
टूटी चारपाई पर
पड़ जाती है ज्यों पड़ा हो
कंकाल कोई...!!