STORYMIRROR

सागर जी

Abstract

4  

सागर जी

Abstract

कैसा बंधन है ये ?

कैसा बंधन है ये ?

1 min
311

जीवन एक पहेली सा,

मन-मस्तिष्क में विचरण करता।

निरुद्देश्य सा भटकता

और शून्य में भ्रमण करता।


न है कोई परिचय इसका,

न ही संबंधी कोई।

फिर भी न जाने कैसे !

जुड़ा है हम सभी से,

जबकि कोई बंधन भी नही।


बहुत कठिन, है बहुत विचित्र,

मन-मस्तिष्क चिंतन करता है।

पार पा जाऊं मैं जीवन से,

ऐसा मेरा भी मन करता है।


पर, कुछ संबंध, जो आकस्मिक

मुझसे जुड़ गए हैं,

उनसे पार जाना, संभव नही।


पार जाऊं भी तो क्या ?

निराश, अशांत सा ही बना रहूँ।

किसी शिला सा पड़ा रहुं,

किसी पर्वत सा खड़ा रहूँ।


क्यों है ? आज मन में

मंथन सा।

जोड़े हैं, इस मोह-माया

के संसार से मुझे,

है वो कौन ? बंधन सा।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract