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Dr Jogender Singh(jogi)

Tragedy

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Dr Jogender Singh(jogi)

Tragedy

क़ातिल

क़ातिल

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टूटने की आवाज़ दूर तक गयी होगी दर्पण की,

अपना चेहरा देखती थी, जिस दर्पण में तुम।

टुकड़े / टुकड़े होकर भी दिखाता रहा होगा,

अक्स तुम्हारा ।

छोटे / छोटे तमाम प्रतिबिंबों ने,

मिल कर दुःख को कई गुना कर दिया होगा।

आँसू ! गणितीय नियम से बड़ कर,

पहाड़ हो गए होंगे।

कैसे सम्भाला होगा,

नाज़ुक सी पलकों ने उफनते बाँध को।


यह दुरूह कार्य कर, कैसे मुस्करायी होगी तुम।

भीतर जो टूटा होगा, बिना आवाज़ के, 

छलनी कर दिया होगा हर अंग को, उन किरचों ने।

ज़ख्म, भर तो जाएँगे, गुजरते वक़्त के साथ।

बिन चाकू / बिन तलवार का।

यह क़ातिल मगर कौन था।

क़ातिल जो बहुत पास था,

शब्दों का रूप धरे हुआ “महापापी” क़ातिल।

घरों को उजाड़ता शैतान ”क़ातिल“।



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