काग़ज़, कलम और मैं
काग़ज़, कलम और मैं
मैं काग़ज़ बन के सिर्फ तेरी तहरीर करता जाऊं
पलकों को कलम बना के चांद पर नाम लिख जाऊँ।
दिल के हर्फ़ निकालकर उनसे मैं लफ्ज़ बनाऊँ
जो न हुआ हो कभी फ़लक को ही ग्रीनबोर्ड बनाऊँ।
मैं जाकर जंगलों में दरख़्तों से फरियाद लगाऊं
बिछाकर उनको राह में तेरी उन पर क्रॉस लगाऊ।
मैं दिल से निकलते लहू को गुलाब सी स्याही बनाऊँ
पूरे बागबाँ की कलियों पर तेरा ही नाम सजाऊं।
मैं सागर से अर्ज़ लगाऊं फ़ज्र तेरी करके ख़ुदा से बोलूं
जो न हुआ हो कभी नीर पर तेरा ही नाम लिख जाऊं।

